पूर्व जन्मों में कृत कर्मोँ से संस्कार बने हैँ। इन्हीँ संस्कारोँ का कुछ भाग वर्तमान के जन्म मेँ भोगने हेतु निश्चित होता है। संस्कारोँ के इसी भाग को प्रारब्ध कहते हैँ। क्योँकि जीव निरन्तर कर्म करता ही रहता है जिससे संस्कार भी निरन्तर बनते ही रहते हैँ। अच्छे कर्मोँ से अच्छे संस्कार व बुरे कर्मोँ से बुरे संस्कार बनते हैँ।
यदि वर्तमान मेँ किसी का प्रारब्ध खराब है तो उसे बहुत अच्छे-२ कर्म करने चाहिये जिससे उसके आगामी स्ंस्कार अच्छे होते चले जायेँ। ईश्वर ने जीव को कर्म फल भोग मेँ परतन्त्र रखा है अर्थात जैसे कर्म किये हैँ फल भोग उसी के अनुरूप होगा और बिना भोगे छुटकारा नहीँ परन्तु ईश्वर ने जीव को कर्म करने के लिये पूर्ण रूप से स्वतन्त्र रखा हुआ है। वो जैसे भी कर्म करना चाहे कर सकता है। इसमेँ कोई भी परतन्त्रता ईश्वर की ओर से नहीँ थोपी गयी है।
अच्छे व बुरे कर्मोँ का फल क्रमशः अच्छा व बुरा ही होगा। अच्छा व बुरा दोनोँ ही प्रारब्ध भोगने होंगे।
प्रारब्ध कर्मों को बदला नहीं जा सकता लेकिन अतीत के कर्मों के परिणाम संचित कर्मों को उनके अभिव्यक्त होने से पहले ही आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा बदला सकता है। जो कर्म प्रकट हो रहा है और जिसका प्रभाव दिखना शुरू हो गया है वह प्रारब्ध कर्म है। आप प्रारब्ध कर्म को बदल नहीं सकते क्योंकि यह वर्तमान में घटित होने लगा है।
कर्मों के द्वारा ही भाग्य में परिवर्तन लाया जा सकता है, पिछले जन्म के कर्म और इस जन्म के कर्म दोनों के मिले-जुले संयुक्त परिणाम को भाग्य कहा जाता है। अगर पिछले जन्म के कर्मों के फलस्वरुप दुख प्राप्त करना लिखा है, तो इस जन्म में दान-पुण्य, उपाय, ईश्वर आराधना एवं अन्य शुभ कर्मों को करने से दुख में कमी लाई जा सकती है।
मनुष्य का भाग्य कब लिखा जाता है? क्षण प्रतिक्षण आप अपना स्वयं का भाग्य लिखते रहते हैं बदलते रहते हैं। आपका विपरीत परिस्थितियों के बाद भी उचित कर्म आप के भाग्योदय के लिए अच्छे कर्म संचित करता है। हर अनुचित कार्य आप को गरीब , बीमार , अभागा बनाने के लिए बुरे कर्म संचित करता है।
जब प्रारब्ध ही नहीँ होगा तो अगला जन्म भी नहीँ होगा।