सनातन धर्म में एकादशी तिथि का बड़ा महत्व होता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इसे प्रबोधिनी या देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन तुलसी माता का भगवान शालीग्राम के साथ विवाह भी किया जाता है। इस साल 12नंबर दिन मंगलवार को है। इस व्रत का आरंभ 12 नवंबर को सूर्योदय से हो जाएगा और इसका पारण 13 नवंबर को किया जाएगा।
देवउठनी एकादशी कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को आती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु आषाढ शुक्ल एकादशी तिथि को शयन में चले जाते हैं और चार महीने के बाद प्रबोधिनी एकादशी तिथि को नींद से जगते हैं। इसलिए आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के समय को चातुर्मास भी कहा जाता है जिसमें योगी और साधक चातुर्मास नियम का पालन करते हुए साधना करते हैं। हरि प्रबोधिनी एकादशी के दिन से चातुर्मास व्रत भी समाप्त हो जाएगा। इसलिए धार्मिक दृष्टि से कार्तिक शुक्ल एकादशी जिसे देव प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं इसका बड़ा ही महत्व बताया गया है।
देवउठनी (देवी प्रबोधिनी) एकादशी व्रत के नियम
देव प्रबोधिनी एकादशी व्रत में दशमी तिथि से ही सात्विक आहार लेना होता है। लहसुन प्याज खाने वालो को दशमी तिथि को ही इसका त्याग कर देना होता है। और फिर एकादशी के दिन दिन भर निर्जल व्रत करना होता है। शाम के समय भगवान विष्णु की पूजा करके फलाहार किया जा सकता है। जो लोग चतुर्मास में भगवान विष्णु को शयन करवाते हैं वह देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन देव को जगाते हैं। भगवान को स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाते हैं।
भगवान विष्णु के ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय या कोई अन्य मंत्र जपें, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें और आरती करें। रात में भजन कीर्तन के साथ पूजा पाठ करें और फिर प्रसाद ग्रहण कर व्रत तोड़ें।
व्रतियों के लिए नियम यह भी है कि इस रात जागरण करते हुए भगवान का भजन कीर्तन करें। और अगले दिन द्वादशी तिथि को ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा देना चाहिए। फिर अन्न जल ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार से देव प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने से श्रीहरि विष्णु की परम कृपा होती है।